जब तलवारों ने तोपों को चुनौती दी, जब एक नाम बन गया हिम्मत और बगावत की पहचान, वो नाम था तुर्रेबाज खान, जिन्हें आज हम 'तुर्रम खान' कहते हैं

1857 – मेरठ से उठी बगावत की आग हैदराबाद तक पहुंची। निजाम से अपील की गई कि वो अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हों, लेकिन निजाम अफ़ज़ल-उद-दौला और उनके मंत्री सालार जंग ने अंग्रेजों का साथ दिया

निजाम के फैसले से नाराज सिपाही खुद बगावत पर उतर आए। चीदा खान, जो जमादार थे, को दिल्ली कूच करने का हुक्म मिला, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। मंत्री ने चीदा खान को धोखे से पकड़वाकर अंग्रेजों को सौंप दिया।

सिपाहियों का गुस्सा उबल पड़ा। रेजिडेंसी हाउस पर हमला करने की तैयारी हुई। अगुआ बने तुर्रेबाज खान – वही तुर्रम खान, जिनके इरादों ने तलवारों को तोपों से टकराने का हौसला दिया। 

एक तरफ अंग्रेजों के पास तोपें और बंदूकें थीं, तो दूसरी तरफ तुर्रम खान और उनके साथी तलवारों और हिम्मत के साथ खड़े थे। मुकाबला न बराबरी का था, न आसान। लेकिन बगावत की आग में जोश हर डर पर भारी था।

तुर्रम खान और उनके साथियों को पीछे हटना पड़ा, लेकिन इरादा साफ था – लौटेंगे और दुश्मन को हराएंगे। लेकिन किस्मत ने उन्हें मौका नहीं दिया।

कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने तुर्रम खान को पकड़ लिया। उन्हें 'काला पानी' की सजा दी गई।

तुर्रम खान ने हार नहीं मानी – जेल से भाग निकले। मगर फिर से पकड़े गए और इस बार अंग्रेजों ने उन्हें गोली मार दी।"

तुर्रेबाज खान का शरीर भले ही खत्म हो गया, पर उनकी कहानी अमर हो गई। उनकी शहादत ने उन्हें अमर कर दिया। उनका नाम बगावत और साहस की मिसाल बन गया