आगरा/गांव शहर: समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद रामजीलाल सुमन के राणा सांगा (Rana Sanga) को लेकर दिए एक बयान के विरोध में करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने आगरा में सुमन के आवास के बाहर जमकर हंगामा किया। हालात इतने बिगड़े कि पुलिस को मौके पर पहुँचना पड़ा, जहाँ दोनों पक्षों के बीच झड़प हो गई। तनाव इतना बढ़ा कि पुलिस और करणी सेना के कार्यकर्ताओं के बीच हाथापाई हो गई। इस झड़प में एक पुलिस इंस्पेक्टर समेत कई लोग घायल हो गए। मौके पर मचे हंगामे के बाद सुरक्षा बलों ने स्थिति को काबू में लाने की कोशिश की। आज हम आपको बताते हैं कि आखिर राणा सांगा कौन थे। जिनपर दिये एक बयान से करणी सेना के लोगों ने इतना उपद्रव काट दिया।
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अपने पुत्रों की वीरता देखकर आज स्वयं राणा सांगा अचंभित होंगे।
आप दोनों भाइयों ने आज अपने पूर्वजों का गर्व से माथा ऊंचा कर दिया, आज वे जहां भी होंगे आप पर फ्रक जरुर कर रहे होंगे।#ओकेन्द्र_राणा_हरियाणा#वीरू_भैया pic.twitter.com/tCN26A7sLd
— 𝐒𝐚𝐦𝐚𝐧𝐭 𝐒𝐡𝐞𝐤𝐡𝐚𝐰𝐚𝐭 (@SamantShekhawat) March 26, 2025
h2>Rana Sanga कौन थे?
इतिहास में 80 घावों वाले योद्धा के नाम से मशहूर राणा सांगा का पूरा नाम महाराणा संग्राम सिंह (Rana Sanga) था। वो राजस्थान के मेवाड़ राज्य के राजपूत राजा थे। उनका शासनकाल 16वीं शताब्दी के दौरान था। उन्हें विदेशी आक्रांताओं विशेष रूप से मुगल बादशाह बाबर के खिलाफ अपनी अदम्य साहस और वीरता के लिए जाना जाता है। राणा सांगा को भारत के इतिहास के सबसे बेहतरीन योद्धाओं में से एक के रूप में जाना जाता है।
Rana Sanga का प्रारंभिक जीवन
राणा सांगा का जन्म साल 1482 के आसपास राजस्थान के मेवाड़ राज्य में हुआ था। वो सिसोदिया वंश के राजपूत थे। हालांकि उनके प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी ज्ञात है। हालांकि शाही परिवार से होने के कारण ये कहा जा सकता है कि उनका बचपन शानो शौकत में ही गुजरा होगा। कहा जाता है कि राणा सांगा की कई पत्नियां थीं। हालांकि उनके नाम किसी दस्तावेज में उपलब्ध नहीं है। राणा सांगा के पुत्रों में से एक थे रतन सिंह द्वितीय जो महाराणा प्रताप के पिता जी थे।
Rana Sanga की गौरव गाथा
1508 ई. में संग्राम सिंह के पिता राणा रायमल एक युद्ध में मारे गए थे। जिसके बाद संग्राम सिंह को मेवाड़ की गद्दी मिली। जिसके बाद संग्राम सिंह ने राणा सांगा की उपाधि धारण करके मेवाड़ के शासन की बागडोर संभाली। उस समय मेवाड़ चारों तरफ दुश्मनों से घिरा हुआ था। मेवाड़ के सिंहासन पर बैठने के बाद राणा सांगा ने अपने राज्य को बेहतर बनाया और राज्य को आगे बढ़ाने के लिए कुछ क्षेत्रों पर हमला कर उसे अपने राज्य में मिला लिया। इसके बाद राणा सांगा ने कई राजपूत शासकों को अपने साथ मिलाकर मुस्लिम शासकों के खिलाफ राजपूतों का एक जबरदस्त गठबंधन तैयार किया। राणा सांगा ने 1517 ई. में खातोली के युद्ध में इब्राहिम लोदी को हराकर अपने बाहुबल का लोहा मनवाया। इस विजय ने उन्हें उत्तर भारत का सबसे प्रभावशाली हिंदू शासक के रूप में स्थापित कर दिया। लेकिन ये ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका। 1527 में बाबर ने राणा सांगा को हराकर दिल्ली पर मुगल सल्तनत की नींव रख दी।
राणा सांगा की 1528 में मृत्यु हो गई। बताया जाता है कि मुगलों के साथ मिले उनके ही कुछ सरदारों ने उन्हें जहर दे दिया था। राणा सांगा की मृत्यु के बाद मुगलों के खिलाफ राजपूतों का गठबंधन खत्म हो गया। राणा सांगा मृत्यु के बाद भी अपनी बहादुरी के लिए सदियों तक जाने जाते रहे।
Rana Sanga का उदय
असल नाम संग्राम सिंह, लेकिन इतिहास ने जिसे राणा सांगा के नाम से याद रखा। 12 अप्रैल 1482 को जन्मे इस राजपूत राजकुमार में बचपन से ही लड़ाकू स्वभाव था। पिता राणा रायमल ने जब देखा कि उनका बेटा तलवार चलाने में दूसरे बच्चों से आगे है, तो उसे खास सैन्य प्रशिक्षण दिलवाया। कहते हैं, सिर्फ 15 साल की उम्र में ही वह युद्ध कौशल में माहिर हो चुका था।
पिता की मौत के बाद कैसे संभाली सत्ता?
साल 1508 में जब राणा रायमल की मृत्यु हुई, तो मेवाड़ की गद्दी के लिए होड़ शुरू हो गई। लेकिन संग्राम सिंह, जो अब राणा सांगा बन चुके थे, ने सिर्फ 26 साल की उम्र में ही अपने विरोधियों को पीछे छोड़ दिया। उन्होंने न सिर्फ सत्ता हासिल की, बल्कि मेवाड़ को एक नई ताकत दी।
राजपूतों को एकजुट कर बनाया मजबूत गठबंधन
उस वक्त राजपूत राज्य आपस में लड़ते रहते थे। लेकिन राणा सांगा ने इन सभी को एक साथ लाने का काम किया। सिसोदिया, राठौर, कछवाहा, भील, गुर्जर—सभी को उन्होंने अपने साथ जोड़ा। यही नहीं, उन्होंने मुगलों और दिल्ली सल्तनत को साफ संदेश दे दिया कि अब राजपूत कमजोर नहीं हैं।
खातोली की लड़ाई: जब इब्राहिम लोदी को मुँह की खानी पड़ी
साल 1517 की बात है। दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी ने सोचा कि वह राजपूतों को आसानी से हरा देगा। लेकिन राणा सांगा ने खातोली के मैदान में उसे ऐसा सबक सिखाया कि लोदी की सेना भाग खड़ी हुई। यह जीत इतनी बड़ी थी कि पूरे भारत में राणा सांगा का नाम डंके की चोट पर गूँजने लगा।
राणा सांगा ने अपने जीवनकाल में अनेकों लड़ाइयां लड़ी। जिनमें ये प्रमुख हैं।
गागरोन का युद्ध
1523 में राजस्थान के गागरोन में मालवा के सुल्तान महमूद द्वितीय खिलजी और राणा सांगा (Rana Sanga) की सेनाएं जा टकराईं। गागरोन एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग था। जिसपर कब्जे को लेकर दोनों सेनाएं एक दूसरे के ऊपर हमला कर दिया था। राणा सांगा ने जब अपने राज्य का प्रभाव बढ़ाकर गुजरात और मालवा की तरफ रूख किया तो गागरोन का किला काफी चुनौती दे रहा था। जिसके बाद मालवा का शासक महमूद खिलजी द्वितीय ने राणा सांगा की सेना पर हमला कर दिया। लेकिन राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूतों ने जबरदस्त युद्ध कौशल का जलवा बिखेरते हुए महमूद खिलजी द्वितीय को पराजित कर दिया। जिसके बाद राणा सांगा की सेना ने गागरोन किले पर नियंत्रण कर लिया।
खतौली का युद्ध
16वीं शताब्दी के मध्य में उत्तर भारत का काफी हिस्सा दिल्ली सल्तनत के लोदी वंश के अधीन था। जिसका राजा इब्राहिम लोदी था। राणा सांगा ने 1517 को इब्राहिम लोदी पर हमला कर दिया। दोनों की सेनाएं आगरा के पास मौजूद खतौली में भिड़ गईं। राणा सांगा के साथ हसन खान मेवाती दे रहे थे। जो अफगान घुड़सवारों की एक टुकड़ी थी। खतौली के युद्ध में राणा सांगा ने इब्राहिम लोदी को हरा दिया। लेकिन इब्राहिम लोद खुद मैदान से भागने में सफल हुआ। ये राणा सांगा के लिए एक बड़ी जीत थी। दिल्ली के सुल्तान को हराने के बाद पूरे भारत में उनकी ख्याति चरम पर पहुंच चुकी थी।
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धौलपुर का युद्ध
धौलपुर राजस्थान का एक राज्य था जहां सिकंदर लोदी का कब्जा था। 1504 में युवा राणा सांगा ने सिकंदर लोदी की सेना के खिलाफ राजपूतों को इकट्ठा किया और उसकी सेना पर टूट पड़ा। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार उस समय राणा सांगा की सेना काफी कमजोर थी। लेकिन राणा सांगा ने युद्ध कौशल ने सिकंदर लोदी की सेना को नष्ट कर दिया और इस युद्ध में विजय प्राप्त की। सिकंदर लोदी के खिलाफ मिली जीत ने राणा सांगा की प्रतिष्ठा में चार चांद लगा दिये।
खानवा की लड़ाई
16 मार्च 1527 को सुबह की धूप ने जब खानवा के मैदान को रोशन किया, तो वहाँ दो ताकतें आमने-सामने थीं। एक तरफ मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) की विशाल सेना, तो दूसरी तरफ मुगल बादशाह बाबर की छोटी, मगर बेहद खतरनाक फौज। यह सिर्फ दो सेनाओं का टकराव नहीं था, बल्कि दो विचारधाराओं, दो साम्राज्यों और दो युगों की लड़ाई थी। राणा सांगा ने बाबर को रोकने के लिए एक अद्भुत सेना तैयार की थी। हसन खान मेवाती जैसे वीरों के साथ-साथ अफगान सरदार भी उनके साथ थे। कहा जाता है कि उनकी फौज में 1 से 2 लाख सैनिक थे, जबकि बाबर के पास सिर्फ 25-30 हज़ार। लेकिन युद्ध सिर्फ संख्या से नहीं जीता जाता। बाबर के पास राजपूतों से बड़ा फायदा था और वो था तोपखाना। उसने ओटोमन तकनीक की तोपें और माचिस (तुर्की भाड़े के सैनिक) लगाए थे। इसके अलावा, उसने खाइयाँ खोदकर राजपूत घुड़सवारों को धोखा दिया। यह तरीका भारत में पहली बार देखा गया था। 16 मार्च की सुबह जब युद्ध शुरू हुआ, तो राजपूतों ने जबरदस्त हमला किया। उनकी तलवारें चमक रही थीं, लेकिन बाबर की तोपों ने मैदान में आग लगा दी। राजपूत घोड़े खाइयों में फँस गए और मुगलों की गोलाबारी ने सेना को तितर-बितर कर दिया। राणा सांगा खुद युद्ध के बीच में घायल हो गए, मगर हार नहीं मानी। उनके सैनिकों ने बहादुरी से लड़ाई जारी रखी लेकिन 10,000 से ज्यादा राजपूत मारे गए। खानवा की हार ने राजपूत शक्ति को झटका दिया। बाबर ने उत्तर भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी और राणा सांगा की अजेय छवि धूमिल हो गई।
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